पद ही सर्वोपरि, प्राथमिकता में पत्रकार हैं कहां !

◾पद हथियाने की देखिए गजब की मठाधीशी ! …तो फिर कैसे मिले पत्रकारों को न्याय ?

पत्रकार संघ IFWJ की स्थापना 28 अक्टूबर 1950 में जिन उद्देश्यों को लेकर की गयी थी, 90 के दशक आते-आते उद्देश्य पीछे छूट गये और आपसी मतभेद इतने बढ़ गये कि वे कई टुकड़ों में बंटते चले गये।

पहली टूट 08 जून 1990 को हुई और IJU का गठन किया गया। 90 के दशक के बाद फिर एक टूट 2014 में हुई और फिर यह दो टुकड़ों में बंट गया। एक गुट ने दूसरे गुट के पदाधिकारियों को संगठन से निष्कासित कर दिया। अब मामला वर्षों से न्यायलय में लम्बित है। इसके बावजूद तीनों ही गुट IFWJ(Pandey), IFWJ(Rao) & IFWJ(Bhargav) स्वयं को IFWJ का सही प्रतिनिधि बता कर इन वर्षों में केवल कार्यक्रम आयोजित कर संगठन के नाम पर खानापूर्ति करते चले आ रहे हैं। इन वर्षों में इनमें से कोई भी एक गुट कभी किसी पत्रकार के साथ तब धरातल पर कहीं खड़ा नहीं हुआ, जब पत्रकारों को संघ से सहयोग की उम्मीद रही। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड एवं छत्तीसगढ़ में पत्रकारों की हत्या के बाद उनमें से किसी गुट के स्वघोषित अध्यक्ष दूर-दूर तलक कहीं दिखाई नहीं दिये। जब पत्रकारों के विरुद्ध झूठे मुकदमे दर्ज किये जा रहे थे, तब इन सभी में से किसी ने भी पत्रकार के साथ खड़े होना तो दूर, उन्हें किसी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं की।

उसी प्रकार NUJI भी दो भागों में बंट गया। यहां भी यह बंटवारा किसी पत्रकार हित के मुद्दे को लेकर नहीं था। पद पर बने रहने के लिए वे आपस में ही नूरा-कुश्ती करते दिखाई दिय।

पत्रकार हितों की रक्षा के लिए बना पत्रकार संगठन आज कई टुकड़ों में बंट गया है। उद्देश्य को लेकर कोई भी गुट कितना सक्रिय रहा है, यह जानना हो, तो उन पत्रकारों के परिजनों से पता करें, जिनकी पिछले 10 वर्षों में हत्याएं हुई हैं…उन पत्रकारों से भी पूछें, जिन्हें झूठे आरोपों में जेल भेजा गया। तब इन संगठनों के मठाधीश अपने निजी स्वार्थ के लिए कभी मुलायम, कभी अखिलेश, तो कभी मायावती के गुणगान में व्यस्त रहे थे।

हर टूट का कारण संगठन में पद पर बने रहने के लिए रहा ; यह कहा जाये, तो गलत नहीं होगा। कुछ संगठनों में टूट धुर्त-मक्कार पत्रकारों के कारण भी हुई। वे पत्रकार संगठन को जाति विशेष संगठन बनाने के लिए गैर पत्रकारों को अपने पत्रकार संघ में न केवल शामिल करने लगे, बल्कि उन्हें महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त करने लगे।

एक प्रश्न पत्रकार साथियों के मस्तिष्क में अवश्य आता होगा कि आखिर IFWJ एवं NUJI को लेकर ही इतनी मारामारी क्यों रही ? क्यों तीन टुकड़ों में बंटे IFWJ के गुट स्वयं को असली और दूसरे को फर्जी प्रमाणित करने के लिए न्यायालय में वर्षों से मुकदमेबाजी कर रहे हैं।

एक गुट के अध्यक्ष लगभग 30 वर्षों से अध्यक्ष के पद पर आसीन हैं और अपने बाद यह पद अपने सुपुत्र को सौंपने की लगभग पूरी तैयारी कर बैठे हैं। वहीं, दूसरे गुट पर उच्चतम न्यायालय के एक अधिवक्ता लम्बे समय से काबिज़ हैं। IFWJ की सम्पत्ति लगभग 18-20 करोड़ की बतायी जाती है, जिसमें लखनऊ प्रेस क्लब का भवन भी शामिल है। हर वर्ष एक अनुमान के अनुसार 35-50 लाख तक की आमदनी की बात कही जाती है।

IFWJ को लेकर मतभेद इसी वित्तीय अनियमितता को लेकर वर्षों से चला आ रहा है। कोई 30 वर्षों से संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए स्वघोषित अध्यक्ष है, तो कोई पत्रकार न होते हुए भी स्वयं को अध्यक्ष घोषित कर बैठा है।

गुटों में बंटे IFWJ के किसी भी गुट को पिछले 05 वर्षों में पत्रकारों के लिए संघर्ष करते कभी नहीं देखा गया। अब तीसरे गुट का गठन किया गया है, जहां गठन के साथ ही विवाद खुल कर सामने आ गया है। बिना किसी बैठक के महासचिव घोषित किये गये पत्रकार ने यह कहा था कि मैं जब दावेदार ही नहीं था, तो यह पद मुझे कैसे दे दिया गया।

कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि पत्रकारों के हितों की रक्षा के लिए बने संगठन का आपसी मतभेद एवं वित्तीय अनियमितता के कारण मठाधीशों ने बंटाधार कर दिया है। वहीं, दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, बिहार एवं झारखंड जैसे राज्यों में सैंकड़ों पत्रकार संगठन कागज़ पर बने हुए हैं, जिनका एक मात्र उद्देश उगाही करना रह गया है। उनमें से कोई स्वयं को अंतरराष्ट्रीय घोषित करता है, तो कोई स्वयं को राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय संगठन होने की दावेदारी करता है। जबकि, उनमें से कोई एक संगठन ऐसा नहीं है, जो उन राज्यों के सभी जनपद/अंचल में भी मौजूद हो। वैसे कागज़ी संगठन के अधिकांश संचालक/पदाधिकारी ठेकेदार, अधिवक्ता, शिक्षक, स्कूल कॉलेज में कार्यरत क्लर्क हैं, जो प्रखंड स्तर पर किसी पोर्टल तो कोई अन्य अख़बार के संवाद सूत्र होते हैं। 

देशभर में स्थापित पत्रकार संगठन अपने उद्देश से भटक चुके हैं, पत्रकार संगठनों को अब अधिकांश राज्य सरकारें गम्भीरता से नहीं लेती हैं, क्योंकि वे अब पत्रकारों के मुद्दों को लेकर कोई बड़ा आन्दोलन नहीं कर सकते, वे अब सुविधाभोगी हो गये हैं। किसी पत्रकार संगठन के नेतृत्वकर्ता को अब किसी राज्य के मुख्यमंत्री से पत्रकारों के मुद्दों पर सख्त तेवर अपनाते आप नहीं देख सकते, क्योंकि ऐसा कर वे अपने अखबार/चैनल के लिए जोखिम नहीं उठा सकते। उन पत्रकार संगठनों के पदाधिकारी किसी मुख्यमंत्री का मीडिया मैनेजर तो कहीं मीडिया सलाहकार बनना चाहते हैं। ऐसे में पत्रकार इन संगठनों के साथ जुड़ कर ठगा महसूस करते हैं।…और, जो पत्रकार संगठन पत्रकारों के मुद्दों को लेकर गम्भीरता से कार्य कर रहे हैं, उनके विरुद्ध नशेड़ी और सड़क छाप कुछ पत्तलकार उन्हें ही कठघरे में खड़ा करने लगते हैं। ऐसे में पत्रकारों के लिए उठनेवाली सशक्त आवाज़ कमज़ोर पड़ जाती है।

सौजन्य साभार.. शाहनवाज…वरिष्ठ पत्रकार ,झारखंड

News ANP के लिए ब्यूरो रिपोर्ट..

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