रांची (RANCHI):सियासत की डगर. में चाहते सबकी अपनी -अपनी होती हैं. सभी बेइंतहा इसे पाने की हसरत लिए मशक्कत,मान-मन्नोव्व्ल और मिजाज बदलते रहते है. यहां खुद को आगे ले जाने की एक जिद भी है, एक तिकड़म भी हैं और एक सरगोशियों की लड़ी भी है. जहां वक्त पड़ने पर कैफियत भी दर्शानी पड़ती है. मिलजुलकर यही दस्तूर और दास्ता सियासत की बिसात पर चलते रहती है. हालांकि तल्ख़ हकीकत ये भी है जिसे ओहदा मिला तो सबकुछ ठीक रहता है. जिसे अगर यह न मिला तो यही सियासत बदचलन हो जाती है.
झारखण्ड विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की माथापेची और कचकच खत्म हो गई. सीनियर लीडर और वरिष्ठ नेता बाबूलाल मरांडी को चुना गया. राजधानी रांची में पर्यंवेक्षक के तौर पर पहुंचे भूपेंद्र यादव और के. लक्ष्मण ने बाबूलाल मरांडी पर अपनी मुहर लगाई. ऐसी कयासे थी कि शायद रांची विधायक सीपी सिंह, धनबाद विधायक राज सिन्हा और हटिया विधायक नवीन जायसवाल में से भी कोई इसबार नेता प्रतिपक्ष बन सकता है . क्योंकि ये सब भी रेस में थे.
हालांकि, इधर हो हल्ला भी नेता प्रतिपक्ष को लेकर काफ़ी हो रहा था, एक फ़जीहत भाजपा को तीन महीने से झेलनी पड़ रही थी. अभी चल रहे बजट सत्र में अब इसपर कोई सवाल सत्ता पक्ष नहीं उठायेगी क्योंकि बाबूलाल चुन लिए गए हैं.
बाबूलाल मरांडी का झारखण्ड की राजनीति में एक लम्बा तजुर्बा और जमीनी पकड़ रही है. उनका कद और आदिवासी चेहरे के तौर पर तो बड़ा है, जो सब पर भारी पड़ता है , जिससे इंकार नहीं किया जा सकता. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भी बाबूलाल ही अग्रणी किरदार में झारखण्ड भाजपा की तरफ से थे. लेकिन कामयाबी उनकी अगुवाई में भाजपा को नहीं मिली. भाजपा की लोकसभा में सीट भी घटी और विधानसभा में तो पार्टी का बेड़ा गर्क हो गया. इस शिकस्त से तिलमिलाहट इतनी थी कि पार्टी बिखरी और बेजार सी दिखने लगी है . मानो सबकुछ लूट -पिट कर हारे लश्कर की तरह हार का मातम मना रही है. दिग्गज बीजेपी लीडर्स भी अपनी सीट नहीं बचा सके उनका नेता प्रतिपक्ष रहे अमर बावरी भी विधानसभा नहीं पहुंच सके. इतना तो छोड़िए सीता -गीता और चंपाई सोरेन का भाजपा में पाला बदलकर आना भी कुछ काम नहीं आया.
झारखण्ड में भाजपा एक विपक्ष के तौर पर वो तेवर, जुझारूपन और बेबकियत में इनके नेता तो पिछड़ से गए है, क्योंकि कोई भी हेमंत सरकार के खिलाफ उतने मुखर से तो नहीं बोल रहा, जो चुनाव से पहले दिखता था.
बाबूलाल के नेता प्रतिपक्ष बनने से पार्टी को फायदा ही होगा, क्योंकि हेमंत सोरेन सरकार के खिलाफ उनकी आवाज सबसे ज्यादा बुलंद रहती है. भाजपा ने एकबार फिर एक सोच और रणनीति के तहत ही बाबूलाल को कमान सौपी. इसके जरिए एकबार फिर कोशिश आदिवासी जनमानस को अपने तरफ खींचने की होंगी, जो भाजपा से अभी भी बिदका हुआ है.
इधर दूसरी तरफ बाबूलाल के राजनीतिक करियर का ये अहम वक्त है, क्योंकि उम्र भी उनकी अब हो चुकी है और अगला विधानसभा चुनाव उनके लिए एक अग्निपरीक्षा की तरह होगा.
भाजपा झारखण्ड में कोई भी खतरा शायद बदलाव करके नहीं लेना चाहती थी , न ही कोई गुटबाजी और नाराजगी पार्टी के अंदर देखना चाहती है, इसलिए भी वरिष्ठ नेता बाबूलाल का नाम नेता प्रतिपक्ष के लिए आगे किया.
देखना यही है कि बाबूलाल भाजपा को कैसे आगे बढ़ाते है?, क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि झारखण्ड में भाजपा का जनाधार नहीं हैं, झारखण्ड विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट प्रतिशत 33फीसदी के आसपास था, और आज भी प्रदेश की नंबर वन पार्टी है, जिसका अपना एक कैडर और विचारधारा है . बस झारखण्ड को एक जोशीले नेतृत्वकर्ता की कमी है, जो अपने कार्यकर्त्ताओं में जान फूंक सके, उम्मीद है कि बाबूलाल एक नये तेवर और जोश के साथ इसबार मैदान में होंगे. हेमंत सरकार से तीखे सवाल -जवाब करेंगे और झारखण्ड के अवाम की समस्याए उठायेंगे.
NEWSANP के लिए रांची से शिवपूजन सिंह की रिपोर्ट